Monday, June 8, 2009

मेरी मां, जन्नत मुजको दिला दी जिसने दुनिया मैं


जन्नत मुजको दिला दी जिसने दुनिया मैं

वो है मेरी माँ

दुनिया मैं जीने का हक दिया मुजको

वो हे मेरी माँ

कचरे का डेर नदिया किनारा था मेरा

मुजको अपनी दुनिया ली

वो हे मेरी माँ

रात का अंधेरा मेरी आखो का डर

मेरे डर मेरी ताकत बनी

वो हे मेरी माँ

मैं डर क़र ना सोया पूरी रात कभी

मेरे लिए जागकर मुझे सुलाया

वो हे मेरी माँ

कभी परेशानी मेरा सवब जो बनी

मेरे रास्ते मैं फूल जिसने बिखेरे

वो हे मेरी माँ

मेरे जुर्म की सजा खुद ने

पाई मुजको अपने आचल मैं छुपा लिया

वो हे मेरी माँ

मंदिर मस्जिद ना किसी की खबर मुजको

ना गीता कुरान का ज्ञान मुजको

फिर भी मुजको जहन्नुम से बचायवो

वो हे मेरी माँ 

कहते हे

लोग माँ के कदमो मैं जन्नत होती

हे मैंने कहा

जन्नत से भी जो उपर

हे वो हे मेरी माँ


मुस्तकीम खान



1 comment:

Vinay said...

आपकी बहुत बढ़िया काव्य समर्पण, क़ाबिले-तारीफ़!

इश्क किया चीज़ है ख़बर न थी हमको

इश्क किया चीज़ है ख़बर न थी हमको अब ग़ालिब तेरे शहर ने जीना सिख़ा दिया