Monday, June 8, 2009

मेरी मां, जन्नत मुजको दिला दी जिसने दुनिया मैं


जन्नत मुजको दिला दी जिसने दुनिया मैं

वो है मेरी माँ

दुनिया मैं जीने का हक दिया मुजको

वो हे मेरी माँ

कचरे का डेर नदिया किनारा था मेरा

मुजको अपनी दुनिया ली

वो हे मेरी माँ

रात का अंधेरा मेरी आखो का डर

मेरे डर मेरी ताकत बनी

वो हे मेरी माँ

मैं डर क़र ना सोया पूरी रात कभी

मेरे लिए जागकर मुझे सुलाया

वो हे मेरी माँ

कभी परेशानी मेरा सवब जो बनी

मेरे रास्ते मैं फूल जिसने बिखेरे

वो हे मेरी माँ

मेरे जुर्म की सजा खुद ने

पाई मुजको अपने आचल मैं छुपा लिया

वो हे मेरी माँ

मंदिर मस्जिद ना किसी की खबर मुजको

ना गीता कुरान का ज्ञान मुजको

फिर भी मुजको जहन्नुम से बचायवो

वो हे मेरी माँ 

कहते हे

लोग माँ के कदमो मैं जन्नत होती

हे मैंने कहा

जन्नत से भी जो उपर

हे वो हे मेरी माँ


मुस्तकीम खान



Sunday, May 31, 2009

अपने सजदों के निशां नूर-ए-नजर पर छोड़ दिये मैंने


नज्में 






१-
अपने सजदों के निशां नूर-ए-नजर पर छोड़ दिये मैंने
वो दो फूल भी न ला सका मेरी मजार पर
२-

अफराद(बहुत ज्यादा) नहीं मिलते यूँ कांधे मय्यतों को।
मुआयदा(वादा) ही करते हैं लोग कयामत से कयामत का।।

३-

आइने में यूँ नहीं दिखती दरार मुझे।
गनीमत है दो चार हम सूरत नहीं शहर में मेरे।।

४-

मेरी तिलाबत से मेरी तकदीर को ना देखो।
मैं अधेरों में भी मंजिल को पा लेता हूँ।।

५-

जंजीरे जकड़ लेती हैं आजाद होने से पहले।
मैं हर गर्दिशों को तोड़ देता हूँ तेरी इबादत से पहले।।
६-

चलायी कलम मैने तो अल्फाज बन गये।
और ऐसे बने अल्फाज की हम खुद ही गुनहगार बन गये।।

७-

लटको न शाखों पर टूट जायेगी ।
जिंदगी की शाम अंधेरों में डूब जायेगी।।

८-

हर उम्मीद का दिया जलाया था मैने हर रात आने से पहले।
अंधेरा ले गया रोशनी मेरी कायनात में आने से पहले।।

९-

गुजारी है कई रातें मैंने मेरे शहर में।
यहां तहजीब से बोलो इज्जत मुफ्त मिला करती है।।
९0
हर गुनाह मैं करता हु इबादत उसकी
की जहन्नुम से भी निकलते है यु खुदा बाले



इश्क किया चीज़ है ख़बर न थी हमको

इश्क किया चीज़ है ख़बर न थी हमको अब ग़ालिब तेरे शहर ने जीना सिख़ा दिया