Sunday, May 31, 2009

अपने सजदों के निशां नूर-ए-नजर पर छोड़ दिये मैंने


नज्में 






१-
अपने सजदों के निशां नूर-ए-नजर पर छोड़ दिये मैंने
वो दो फूल भी न ला सका मेरी मजार पर
२-

अफराद(बहुत ज्यादा) नहीं मिलते यूँ कांधे मय्यतों को।
मुआयदा(वादा) ही करते हैं लोग कयामत से कयामत का।।

३-

आइने में यूँ नहीं दिखती दरार मुझे।
गनीमत है दो चार हम सूरत नहीं शहर में मेरे।।

४-

मेरी तिलाबत से मेरी तकदीर को ना देखो।
मैं अधेरों में भी मंजिल को पा लेता हूँ।।

५-

जंजीरे जकड़ लेती हैं आजाद होने से पहले।
मैं हर गर्दिशों को तोड़ देता हूँ तेरी इबादत से पहले।।
६-

चलायी कलम मैने तो अल्फाज बन गये।
और ऐसे बने अल्फाज की हम खुद ही गुनहगार बन गये।।

७-

लटको न शाखों पर टूट जायेगी ।
जिंदगी की शाम अंधेरों में डूब जायेगी।।

८-

हर उम्मीद का दिया जलाया था मैने हर रात आने से पहले।
अंधेरा ले गया रोशनी मेरी कायनात में आने से पहले।।

९-

गुजारी है कई रातें मैंने मेरे शहर में।
यहां तहजीब से बोलो इज्जत मुफ्त मिला करती है।।
९0
हर गुनाह मैं करता हु इबादत उसकी
की जहन्नुम से भी निकलते है यु खुदा बाले



इश्क किया चीज़ है ख़बर न थी हमको

इश्क किया चीज़ है ख़बर न थी हमको अब ग़ालिब तेरे शहर ने जीना सिख़ा दिया